CLASS 10TH SANSKRIT  प्रथम – पाठ मंगलम व्याख्या तथा अर्थ सहित | Class 10th Sanskrit मंगलम प्रथम – पाठ full Solution |

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SANSKRIT  प्रथम – पाठ मंगलम व्याख्या तथा अर्थ सहित

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

                                           तत्त्वं पूषन्नापावृणु सत्यधर्माय दूष्टये ॥


अर्थ –  हे प्रभु सत्य का मुख सोने जैसा आवरण से ढका हुआ है ,| इसलिय लिए सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए (मन से माया – मोह ) को त्याग दे , तभी सत्य धर्म की प्राप्ति संभव है |

व्याख्या प्रस्तुत अश्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक संस्कृत के प्रथम पाठ मंगलम के ‘इशावस्य उपनिषद’ से लिया गया है | इस श्लोक के माध्यम से हमें यह बताया गया है की सत्य का मुख सोने जैसा आवरण से ढका हुआ है विद्वान् लोग भी माया मोह में पड़कर सत्य को छुपाए हुए है | सत्य धर्म की रक्षा के लिए आप उसे हटा दे उसका नाश कर दे जिससे हमलोग सत्य धर्म को देख सके



 2.अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।

 तमकतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।।


अर्थ – जीवो की हृदय रूपी गुफा में सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़ा से बड़ा आत्मा निवास करती है | जिसे मंद बुद्धि वाला मानव भी आत्मा की महानता को देखकर शोक रहित हो जाता है

व्याख्या प्रस्तुत अश्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक संस्कृत के प्रथम पाठ मंगलम के ‘कठो उपनिषद’ से लिया गया है | विद्वानों के द्वारा कहा गया है की मनुष्य की ह्रदय में छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी आत्मा निवास करती है | अगर उसका आभास हो जाता है यानि ज्ञान हो जाता है तो मंद बुद्धि वाला व्यक्ति भी शोक रहित हो जाता है यानि माया मोह को त्याग कर परमपिता परमात्मा में एकाकार हो जाता है |

3.सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।

येनाक्रमन्त्षयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परं निधानम् ।।




अर्थ – सत्य की ही जित होती है असत्य (झूठ) की नहीं सत्य के द्वारा ही देवताओ का मार्ग विस्तारित होता है जहाँ ऋषि गण ब्रम्हा ज्ञान तक पहुचना चाहते है उस सत्य से बड़ा कुछ नही सत्य ही परम निधान है |

व्याख्या प्रस्तुत अश्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक संस्कृत के प्रथम पाठ मंगलम के ‘मुण्डक उपनिषद’ से लिया गया है | इसमें ऋषि द्वारा बताया गया है की सत्य ही एक ऐसा सत्य है जिसे कोई झुठला नही सकता है ऋषि द्वारा सत्य की प्राप्ति करने के लिए जन कल्याण की रक्षा के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करते है सत्य के द्वारा देवताओ का मार्ग विस्तारित होता है |




4.यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।

तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।


अर्थ –जिस प्रकार बहती हुई नदिया समुन्द्र में मिलकर अपने नाम को विलुप्त कर देती है ठीक उसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी दिव्यता को प्राप्त कर परमपिता परमात्मा में एकाकार हो जाता है

व्याख्या प्रस्तुत अश्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक संस्कृत के प्रथम पाठ मंगलम के ‘मुण्डक उपनिषद’ से लिया गया है | इस श्लोक में हमें बताया गया है की जिस प्रकार नदियों को समुन्द्र में मिलकर उनके अस्तित्व का पता नही चलता है (अपने मन से विमुक्त हो जाती है) ठीक उसी प्रकार विद्वान् लोग भी जब परमपिता परमात्मा से साक्षात्कार हो जाते है | यानि उनसे मिलने के बाद वह मायामोह को त्याग कर परमपिता परमात्मा में एकाकार हो जाते है



5. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।


अर्थ – जैसे हमलोग अंधकार के बाद सूर्य को देखते है वैसे ही वेद महान पुरुष के सामान है वेद को जानकर मृत्यु पर भी विजय प्राप्त किया जा सकता है इसके सिवा कोई अन्य मार्ग नही है अगर जानते हो तो बताओ | अर्थात वेद ही सत्य है बाकि सब असत्य है

व्याख्या प्रस्तुत अश्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक संस्कृत के प्रथम पाठ मंगलम के श्वेताश्वरोपनिषद से लिया गया है | इस अश्लोक के माध्यम से वेद स्वरूप इश्वर की चर्चा किया गया | इस श्लोक के माध्यम से हमें यह बताया गया गया है की वेद की ज्ञान की प्राप्ति करने वाला ही मोक्ष की प्राप्ति करता है | अत: यही एक ऐसा मार्ग है जहाँ मोक्ष की प्राप्ति होती है इसके सिवा कोई अन्य मार्ग नही है अगर जानते हो तो बताओ

 


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