प्रश्न 1. कवि अपने को जलपात्र और मदिरा क्यों कहता है ?
उत्तर-कवि अपने को ईश्वर का जलपात्र और मदिरा इसलिए मानता है, क्योंकि ईश्वर रूपी जल मानव रूपी पात्र में निवास करता है। मनुष्य ही उस जल को शुद्ध एवं सुरक्षित रखता है। यदि मनुष्य उस जल की विशेषता का गुणगान नहीं करेगा अर्थात् उस जल का पान नहीं करेगा तो आखिर कौन करेगा? मदिरा कहने का उद्देश्य यह कि भगवान भक्त की प्रेमपूर्ण भक्ति से उसी प्रकार मस्त हो जाते हैं जैसे मदिरा का पान कर कोई सुध-बुध खो बैठता है। अतः कवि ने अपने को जलपात्र और मदिरा दोनों माना है।
अज्ञानी, अविवेकी तथा वाणीहीन हैं। मनुष्य ही ऐसा है जिसे प्रभु ने सब कुछ प्रदान किया है। इसीलिए कवि कहता है कि मनुष्य के बिना ईश्वर का शानदार लबादा गिर जाएगा, वह मूल्यहीन हो जाएगा।
प्रश्न 2. कवि किसको कैसा सुख देता था ?
उत्तर-ईश्वर की कृपादृष्टि जो कभी कवि के कपोलों की कोमल शय्या पर विश्राम करती थी, वह सूख जाएगी। कवि के कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर की आभा जो हमेशा मनुष्य में विद्यमान रहती है, वह मनुष्य के बिना नष्ट हो जाएगी। ईश्वर की इसी आभा को मनुष्य सतत् अपने कपोलो पर मौजूद रखता है अर्थात् सुख प्रदान करता है, वह मनुष्य के बिना निराश होकर उस सुख की खोज में भटकता फिरेगा। अतः ईश्वरीय सत्ता को कवि अपने कपोलों की नर्म शय्या पर विश्राम करने का सुख देता है।
प्रश्न 3. कवि को किस बात की आशंका है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-कवि को इस बात की आशंका है कि यदि मनुष्य नहीं रहेगा तो संध्याकालीन सूर्य की लाल किरणों के योग से प्रकृति में अलौकिक सौन्दर्य छिटकने लगता है का वर्णन कौन करेगा? तात्पर्य यह कि सूर्यास्त के समय सूर्य के अस्ताचल पर्वत की ओट में छिपने के कारण किरणे आकाश, पर्वत तथा पेड़ों पर पड़ती है, जिससे सभी लाल रंग के प्रतीत होने लगते हैं। इस समय प्रकृति में अद्भुत परिवर्तन आ जाता है। कवि को शंका है कि मनुष्य के बिना इस अनुपम सौन्दर्य का वर्णन अथवा अनुभव कौन करेगा, क्योंकि सारे जीवों में मात्र मनुष्य ही चेतनशील है। यही अपना अनुभव वाणी द्वारा व्यक्त करने में समर्थ है। इसलिए कवि कहता है कि मनुष्य के बिना यह काम कौन करेगा?
प्रश्न 4. कविता किसके द्वारा किसे संबोधित है ? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर—कविता कवि (मनुष्य) द्वारा ईश्वर को संबोधित है। मेरे विचार से कवि का यह कहना बिल्कुल सही है कि ईश्वर ने मनुष्य को ही यह शक्ति प्रदान की है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी जीव को यह शक्ति नहीं मिली है। मनुष्य ही ईश्वरीय सत्ता के महत्त्व के बारे में जानता है और उस सत्ता का गुणगान करता है। यदि मनुष्य नहीं रहेगा तो ईश्वर का गुणगान करने वाला कोई नहीं होगा। अतः कवि के इस कथन से पूर्ण सहमत हूँ कि मानव के बिना ईश्वर की महत्ता को कौन स्वीकार करेगा, क्योंकि वाक्रहित प्राणी द्वारा यह काम संभव नहीं है।
प्रश्न 5. मनुष्य के नश्वर जीवन की महिमा और गौरव का यह कविता कैसे बखान करती है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर–प्रस्तुत कविता ‘मेरे बिना तुम प्रभु’ में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य का जीवन नश्वर है और सत्य है। ईश्वर भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालों में विद्यमान रहता है, लेकिन नाशवान् मानव ही इस बात की सच्चाई का उल्लेख कर पाता है कि ईश्वर के अतिरिक्त सभी नश्वर । कविता में कवि ने मानव जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए यह सिद्ध करना चाहा है कि मानव ईश्वर का ही प्रतिरूप है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है । संत कवि तुलसी ने भी इस संबंध में कहा है-“ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी।” तात्पर्य यह कि परमात्मा का अंश आत्मा अर्थात् मनुष्य उस परमसत्ता का गुणगान करने के लिए ही जन्म लेता है और प्रभु की सत्ता को अमर बनाता है। इसी लिए कवि ने कविता में जलपात्र, मदिरा, पादुका, नर्मशय्या आदि उपमानों का प्रयोग किया है कि मनुष्य ही ईश्वर के अस्तित्व कायम रखने में सहयोगी है।