प्रश्न 1. कवि किसके बिना जगत् में यह जन्म व्यर्थ मानता है ?
उत्तर-कवि राम-नाम के जप के बिना जगत् में यह जन्म व्यर्थ मानता है। अर्थात् मानव-शरीर धारण करने पर जो राम के नाम का स्मरण अर्थात् सच्चे हृदय से जप नहीं करता है तथा सांसारिक विषय-वासनाओं अर्थात् बाह्याडंबर में फंसा रह जाता है, उसका मनुष्य योनि में जन्म लेना व्यर्थ साबित होता है।
प्रश्न 2. वाणी कव विष के समान हो जाती है ?
उत्तर-वाणी तब विष के समान हो जाती है जब व्यक्ति राम-नाम की चर्चा या भजन न करके सांसारिकता की चर्चा करता है। तात्पर्य यह कि जब व्यक्ति ईश्वर के नाम की महिमा का गुणगान न करके मति-भ्रमता के कारण पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड या बाह्याडंबर में विश्वास करने लगता है
प्रश्न 3. नाम-कीर्तिन के आगे कवि किन कर्मों की व्यर्थता सिद्ध करता है?
उत्तर-कवि गुरु नानक का कहना है कि नाम-कीर्तिन ही व्यक्ति को इस दुःखमय संसार में शांति प्रदान कर सकता है। पूजा-पाठ, संध्या-तर्पण, वेश-भूषा से आन्तरिक शुद्धि नहीं होती, क्योंकि इसमें बाह्याडंबर के कारण अहंकार भावना जन्म लेती है, जबकि नाम-कीर्तिन से हदय में प्रेम रस का संचार होने के कारण जीवन में सहजता आ जाती है। अतः नाम-कीर्तिन अथवा भगवद् भजन के अतिरिक्त सारे बाह्याडंबर व्यर्थ है।
प्रश्न 4. प्रथम पद के आधार पर बताएँ कि कवि ने अपने युग में धर्म-साधना के कैसे-कैसे रूप देखे थे ?
उत्तर–प्रथम पद में कवि ने धर्म-साधना के विभिन्न रूपों के विषय में कहा है कि उस समय अपनी मुक्ति के लिए साधुजन वैराग्य के चिह्न के रूप में डंड-कमंडल धारण किए हुए थे, लंबी-लंबी शिखा रखते थे, जनेऊ पहनते थे, तीर्थ यात्रा करते थे, जटा का मुकुट बनाकर शरीर में राख रमाए नंगा रहते थे। अतः नानक देव का कहना है कि उस समय बाह्याडंबर की चमक-दमक थी। लोग इसी को धर्मसाधना का मुख्य साधन मानते थे। वर्णाश्रम-व्यवस्था के कारण ऊँच-नीच की भावना समाज में प्रबल रूप में व्याप्त थी। कवि अपने युग में ऐसी ही धर्म-साधना से दो-चार हुआ था।
प्रश्न 5. हरिरस से कवि का अभिप्राय क्या है ?
उत्तर-हरिरस से कवि का अभिप्राय राम-नाम के जप से है। कवि के कहने का तात्पर्य है कि जिसने नामरूपी रस का मधुर स्वाद चख लिया है उसके लिए यह संसार असत्य एवं असहज हो जाता है, अर्थात् जो प्रेम या भक्ति रूपी रस में सराबोर हो जाता है, उसका हृदय दिव्य-प्रकाश से आलोकित हो उठता है। अतः हरिरस से तात्पर्य प्रेमरस अथवा नाम-रस से है।
प्रश्न 6. कवि की दृष्टि में ब्रह्म का निवास कहाँ है?
उत्तर कवि की दृष्टि में ब्रह्म का निवास अंतकरण में है। कवि का मानना है कि जब व्यक्ति सच्चे दिल से उस परमपिता परमेश्वर को याद करता है तब उसका अंतःकरण प्रेम-रस से आलोड़ित हो जाता है। उसका चित्त शांत हो जाता है। इसीलिए कवि कहता है कि ईश्वर का निवास न तो किसी मंदिर, मस्जिद में है और न ही पूजा- पाठ, कर्मकाण्ड अथवा विशेष प्रकार की वेश-भूषा में है, बल्कि ईश्वर का निवास सच्चे प्रेम में है जो अंतःकरण से उद्भूत होता है।
प्रश्न 7. गुरु की कृपा से किस युक्ति की पहचान हो जाती है ?
उत्तर-गुरु नानक का कहना है कि जिस पर ईश्वर की कृपा हो जाती है, वह सारी सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सुख-दुःख दोनों ही स्थितियों में एक समान रहता है। वह मान-अपमान निंदा-स्तुति हर्ष-शोक में समान रहता है। इसे काम, क्रोध, मद, लोभ एवं अहंकार व्यथित नहीं करते । अर्थात् ऐसा व्यक्ति कामनारहित तथा निस्पृह रहता है। तात्पर्य यह कि जिस हृदय में ब्रह्म का निवास होता है, उसे सांसारिक बातों से विरक्ति हो जाती है। अतः गुरु की कृपा से सत्य-असत्य की पहचान हो जाती है। उसकी आत्मा परमात्मा में एकाकार हो जाती है, जैसे-पानी-पानी के साथ मिलकर एक हो जाता है।
प्रश्न 8. व्याख्या करें:
(क)राम नाम बिनु अरुझि मरै।
(ख) कंचन माटी जानै
(ग) हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना।
(घ) नानक लीन भयो गोविंद सो, ज्यों पानी संग पानी।
उत्तर-(क) प्रस्तुत पद गुरुनानक देव लिखित प्रथम पद से उद्धृत है। इसमें कवि ने सच्ची उपासना पद्धति के विषय में अपना विचार प्रकट किया है। कवि का कहना है कि ईश्वर की प्राप्ति सहज प्रेम यानी नाम-कीर्तिन से होती है। जो मनुष्य ईश्वर प्रेम में न डूबकर पूजा-पाठ, संध्या-तर्पण, वेश-भूषा अर्थात् बाह्याडंबर या दिखावटीपन आदि को सच्ची साधना मानकर करता है, वह सांसारिक माया-मोह के जाल में फँसा रह जाता है और वह तब तक विभिन्न योनियों में भटकता रहता है अब तक ईश्वर से उसका आत्म-साक्षात्कार नहीं हो जाता। इसीलिए कवि ने सच्चे दिल से नाम-कीर्तन की सलाह दी है। राम नाम बिनु अरुझि मरै’ में अपहृति अलंकार है।
(ख) प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि नानक देव ने सच्ची भक्ति या उपासना की विशेषताओं के बारे में बताया है। कवि का कहना है कि जिसे सत्य की परख हो जाती है या राम के नाम रूपी रस की मधुराई का स्वाद मिल जाता है, उसके लिए सोना एवं मिट्टी में फर्क नहीं रह जाता। वह सारी सांसारिक विषय-वासनाओं से विरक्त हो जाता है। वह निस्पृह होकर संसार का भोग करता है। तात्पर्य यह कि जो सांसारिक कामनाओं का त्याग कर देता है, वह सोना को मिट्टी के समान मानने लगता है। अतः शांति तो तभी मिलती है जब व्यक्ति माया-मोह से ऊपर उठ जाता है।
(ग) द्वितीय पद से उद्धृत प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि ने महान व्यक्तियों की पहचान बताई है। कवि का कहना है कि जो सांसारिक विषय-वासनाओं से निस्पृह हो जाता है या सात्विक विचार का हो जाता है अथवा जिसका अंतःकरण प्रेम रस से भर जाता है या सांसारिक क्षणभंगुरता का सही ज्ञान हो जाता है, वह हर्ष-शोक, मान-अपमान, निंदा-स्तुति आदि से उद्वेलित नहीं होता, बल्कि समुद्र के समान गंभीर बना रहता है। तात्पर्य यह कि निम्न विचार वाले इन बातों से प्रसन्न या दुःखी होते हैं लेकिन जिसे दिव्य प्रकाश के दर्शन हो जाते हैं तब उन्हें राग-द्वेष दोनों समान प्रतीत होते हैं।
(घ) प्रस्तुत पंक्ति नानक द्वारा लिखित द्वितीय पद से उद्धृत है। इसमें कवि ने अपने संबंध में कहा है। कवि का कहना है कि वह ईश्वर के साथ उसी प्रकार एकाकार हो गया है, जैसे नदी का जल समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाता है और नदी जल का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, वैसे ही राम के नाम-स्मरण के प्रभाव से उसकी आत्मा-परमात्मा में एकाकार हो गई है। अतः कवि का मानना है कि सत्य तो ब्रह्म ही है, संसार तो उसकी माया है। व्यक्ति जब इस माया से मुक्ति पाने के लिए संसार की नश्वरता को मानते हुए अपने-आपको ईश्वर भजन में लीन कर देता है, तब वह गोविंद (ईश्वर) में समाहित हो जाता है। जिस प्रकार कवि स्वयं ईश्वर का भजन करके उनके दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठी। ‘ज्यों पानी संग पानी’ में यमक अलंकार है।
प्रश्न 9. आधुनिक जीवन में उपासना के प्रचलित रूपों को देखते हुए नानक
पदों की क्या प्रासंगिकता है ? अपने शब्दों में विचार करें। उत्तर-आधुनिक जीवन में उपासना की वही पद्धति प्रचलित हैं जो रूप नानक के समय थे। आज भी तीर्थ-व्रत, पूजा-पाठ, वेश-भूषा तथा सम्प्रदायवादी विचार का बोलबाला है। मात्र जातीय बंधन में थोड़ा ढीलापन अवश्य आया है। मन्दिर-मस्जिद का वही महत्त्व है जो पूर्व में था। तात्पर्य यह कि आज भी बाह्याडंबर है। सच्ची भक्ति अर्थात् मानवता में ह्रास हुआ है। कंचन के प्रति मोह ने मानवता को झकझोर दिया है। प्रेम, करूणा, सहानुभूति जैसे मानवीय गुण दिनानुदिन घटते जा रहे हैं। अतः नानक ने जिन बंधनों से मुक्त होने की सलाह दी थी, वह बंधन दृढ़ से दृढ़तर होता जा रहा है। इसलिए नानक के पद जितना उस समय प्रासंगिक थे, उतना आज भी हैं। इस दृष्टि से बिहारी का यह दोहा आज के परिवेश खरा उतरता है